Machander Nath Ki Kahani Bhag 19 || मछंदर नाथ की कहानी भाग 19 || Machander Nath Ki Katha Bhag 19 || मछेन्द्रनाथ की कथा भाग 19
Machander Nath Ki Kahani Bhag 19 || मछंदर नाथ की कहानी भाग 19 || Machander Nath Ki Katha Bhag 19 || मछंदर नाथ की कथा भाग 19
Machander Nath Ki Kahani Bhag 19 || मछंदर नाथ की कहानी भाग 19 || Machander Nath Ki Katha Bhag 19 || मछंदर नाथ की कथा भाग 19
एक समय की बात है कि सूर्य और उर्वशी की दृष्टि एक हुई और सूर्य का कामवासना से विह्वल होने के कारण वीर्यपात हो गया। हवा चलने के कारण उसके दो भाग हो गये।
प्रथम भाग लोमेश ऋषि के आश्रम में घड़े में गिरा और अगस्त्य ऋषि का निर्माण हुआ। दूसरा भाग कौलिक मुनि के आश्रम में जा गिरा। जब वे भिक्षा मांगने के लिये खड़े थे तो भिक्षा पात्र में गिरा।
तब मुनि को पता चला कि यह तो सूर्य का वीर्य है। तब उन्होंने अपनी शक्तियों द्वारा जाना कि अब से तीन वर्ष बाद घृमीन नारायण उस पात्र में संचार करेंगे इसीलिये इस पात्र को संभाल कर रखना अब मेरा परम कर्तव्य है।
उस पात्र को मुनि ने संभाल कर रखा और फिर काफी समय बीत जाने पर कलियुग की शुरूआत हुई। मुनि ने उस भिक्षापात्र को मदरावल पर्वत की गुफा में संभाल कर रख दिया। कुछ वर्ष बाद उसमें घृमीन नारायण का अवतार हुआ।
वह बालक सूर्य के समान ही तेजस्वी व सुंदर था। उसी समय कुछ हिरण और हिरणियां वहां घास चरने के लिये आये। नियति का खेल भी ऐसा ही था कि उनमें से एक हिरनी गर्भवती थी और उसके दो बच्चे पैदा हुए। अचानक उसे तीसरा बच्चा भी दिखा।
Guru Machander Nath Ki Katha || गुरू मछंदर नाथ की कथा || Baba Machander Nath Ki Kahani || Machander Nath Ki Kahani Bhag 19
मां की ममता भी ऐसी होती है कि वह हिरनी उस बालक को अपना बच्चा समझ चाटने लगी और उसे दूध पिलाने लगी। कुछ दिनों के पश्चात् वह बालक अपने घुटनों के बल चलने लगा।
किंतु उस हिरनी मां का मन सदैव तीसरे बच्चे के कारण व्याकुल रहता था। एक दिन की बात है, सभी हिरन-हिरनियां एक आम रास्ते पर जा निकले थे। उस समय वह बालक 5 वर्ष का हो चुका था।
उसी रास्ते पर एक भाट और उसकी पत्नी भी जा रहे थे। उस भाट का नाम जयसिंह और उसकी पत्नी का नाम रेणुकाबाई था। दोनों में बहुत प्रेम था। उन दोनों ने उस सुंदर बालक को देखा।
जैसे ही जयसिंह को उस हिरनी ने देखा तो वह वापस भागने लगी। जयसिंह ने भागकर उस सुंदर बालक को पकड़ लिया। जयसिंह बोला कि मैं तुझे तेरे माता-पिता के पास पहुँचा दूँगा। तू बता मुझे कि तेरा घर कहां है?
परंतु वह बालक तो रो-रोकर हिरन की बोली बोलने लगा। वह भला मनुष्य की बोली कैसे समझता? वह तो व्यां–व्यां के सिवा कुछ भी बोल ही नहीं रहा था।
ऐसी हालत में जयसिंह ने उस बालक को अपने घर ले जाने का फैसला किया। जब घर लौटते-लौटते रात अधिक हो गयी तो उस बालक को अपनी पत्नी को सौंप दिया।
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धीरे-धीरे वह बालक उस हिरनी को भूल गया और मनुष्यों के तौर-तरीके सीख गया। दोनों घूमते हुए काशी जा पहुँचे। वहां गंगाजी में स्नान किया और विश्वनाथ जी के दर्शन किये। उस वक्त भी बालक उनके साथ ही था।
तभी अचानक शिवमूर्ति में से एक आवाज निकली –
आओ भर्थरी आओ, अब अवतार लेकर प्रकट हो गये। बड़ा अच्छा किया। शिवजी के यह शब्द सुनकर जयसिंह समझ गया कि अवश्य ही यह बालक कोई अवतारी जान पड़ता है।
शिवजी ने कहा कि अपने शुभ कर्मों के कारण ही तुमने इस बालक को प्राप्त किया है। दोनों पति-पत्नी ने उस बालक का नाम भर्थरी रखा और उसका बड़े प्यार से लालन-पालन किया।
भर्थरी भी बड़ा आज्ञाकारी था। वह अपने माता-पिता की मर्जी पर ही चलता था। उनकी सेवा किया करता। यह बालक अपने मां-बाप से दूर जंगल में किस प्रकार भटक सकता है, यह उनकी समझ से बाहर था।
इसी कारण वे काशी में ही भिक्षा मांगकर अपनी दिनचर्या पूरी करने लगे। परंतु भर्थरी की किस्मत में तो राजयोग था। वह अपने सभी साथियों को इकट्ठा कर खुद तो राजा बनता और उन पर रौब झाड़ता।
जैसी संगत वैसी बुद्धि। एक दिन लकड़ी के घोड़े पर सवारी करते-करते भर्थरी गिर गये और यह देखकर सभी बच्चे भाग गये। वे बेहोश हो गये। जब यह घटना सूर्यदेव ने ऊपर से देखी तो अपने बेटे को पहचान कर वे ब्राह्मण का वेश धर कर पृथ्वी पर आये।
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अपने पुत्र को गोद में उठाया और गंगाजल उसके मुंह में डाला। इस प्रकार बालक भर्थरी होश में आया। इसके बाद सूर्यदेव ने उसे जयसिंह को दिया।
जब जयसिंह ने उस तेजस्वी ब्राह्मण को देखा तो उनहें आसन दिया और उनका नाम पूछा। इस पर सूर्यदेव ने कहा कि मैं इस बालक का पिता हूँ। इसीलिये इसे आपके पास लेकर आया हूँ।
यह सुन जयसिंह ने उनसे नाम पूछा। नाम पूछे जाने पर वे बोले कि मेरा नाम सूर्य है। संसार में उजाला करने वाला मै ही हूँ। सूर्यदेव ने जयसिंह को सारी कहानी विस्तार से बतायी तो उन्हें बड़ा आनन्द आया।
जब बेटा 18 वर्ष का हो गया तो जयसिंह ने सोचा कि गांव काशी जाकर बेटे का ब्याह रचायेंगे। परंतु रास्ते में जयसिंह को किसी ने मार दिया और उनकी पत्नी ने अपने प्राण त्याग दिये।
भर्थरी को यह बहुत बड़ा दुख हुआ। तभी रास्ते में उन्हें कुछ बंजारे दिखाई दिये तो वे उन्हीं बंजारों के साथ हो लिये और शनै:-शनै: सब दुख भूल गया।
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