महाभारत काल की सबसे कम सुना या पढ़ा गया किस्सा कोनसा है? Mahabharata ka unsuna kissa
महाभारत काल की सबसे कम सुना या पढ़ा गया किस्सा कोनसा है? Mahabharata ka unsuna kissa
Mahabharata ka unsuna kissa – यह महाभारत का एक ऐसा किस्सा है जो बहुत महत्वपूर्ण होते हुए भी ज्यादा चर्चा में नही आया और ये कहानी या किस्सा आज के युग से सीधे रूप से जुड़ा हुआ है।

मुझे नहीं पता कि इस उत्तर के बारे में पहले चर्चा हुई है या नहीं। यह राजा परीक्षित की मृत्यु और कलयुग की शुरुआत की कथा है।
जब पांडवों को पता लगा कि श्री कृष्ण का कार्य धरती पर सम्पन्न हो गया और वह अपनी इहलीला समाप्त करने वाले हैं तो वे दुखी हो गए। इस दुख के कारण उन्होंने परीक्षित को हस्तिनापुर का राजपाट सौंप दिया और द्रौपदी के साथ हिमालय पर ध्यान करने चले गए।
राजा परीक्षित बड़े प्रतापी राजा थे। वो हस्तिनापुर को बहुत अच्छे से देख रहे थे। पर परीक्षित और पांडव के ऊपर एक समस्या थी जो भगवान कृष्णा के कारण परिलक्षित नहीं हो रही थी।
दरअसल, पांडवों और कौरवों के युद्ध के दौरान नवे दिन ही तीसरे युग का अंत हो गया और कलियुग ने प्रवेश कर लिया था।
चूँकि भगवान कृष्ण के जीवित रहते कलि अपना प्रभाव नहीं दिखा पा रहा था, अस्तु प्रभु के जाते ही कलि लोगों के मस्तिष्क में राक्षसी प्रवित्तियों को घोलने लगा।
जल्दी ही राजा परीक्षित तक यह समाचार पँहुच गया कि दैत्य कलि उनके साम्राज्य में अपने दुष्प्रभावों को फैला रहा है। परीक्षित जल्द ही उज़ दैत्य की खोज में निकल गए जिससे हस्तिनापुर को उसके प्रभाव से बचाया जा सके।

राजा ने देखा कि एक बूढ़ा कमजोर व्यक्ति एक गाय और एक बैल को बेरहमी से पीट रहा है। बैल एक पाँव पर ही खड़ा था यह देखकर राजा परीक्षित समझ गए कि निश्चित ही यह बूढ़ा ही राक्षस है और बैल को आज़ाद करवाना ही पड़ेगा।
दरअसल यह एक सांकेतिक रूप था जो दर्शाता था कि गाय धरती है और बैल धर्म। कलियुग में उसके चार स्तंभों अर्थात तप, सत्य, स्वच्छता (बाह्य व अंतः) एवं दया में से बस सत्य ही बचा है।
सतयुग में धर्म के चारों पैर ठीक थे। त्रेता में तीन, द्वापर में दो और कलियुग में बस एक ही स्तंभ पर धर्म टिका था, वह भी धीरे धीरे क्षीण हो जा रहा था।
यह देखते ही परीक्षित ने तलवार निकाल ली। कलि जानता था कि परीक्षित भगवान कृष्ण के पौत्र हैं और वह उनसे नहीं जीत सकता। इसी कारण से उसने बल की जगह बुद्धि का प्रयोग करना उचित समझा।
उसने राजन से कहा कि यह प्रकृति का नियम है, वह प्राकृति के नियम में हस्तक्षेप नहीं कर सकते। राजन बद्धिमान थे, उन्हें लगा कि कलि ठीक कह रहा है कि वे प्रकृति के नियमों में हस्तक्षेप नहीं कर सकते।
पर उन्होंने कलि से एक समझौता किया कि वह केवल उन्हीं स्थानों पर रहेगा जहाँ आसुरी प्रवित्तियाँ निवास करती हैं।

यह चार स्थान थे, जुआघर, बूचड़खाने, वेश्यालय और मदिरालय। कलि ने उनसे प्रार्थना की कि वह उसे एक और स्थान रहने को दें।
इसपर उन्होंने उसे हर सोने की वस्तु पर रहने की अनुमति दे दी। आज भी ये पांचों चीज़े आसुरी प्रवित्ति को आमंत्रण देती हैं।
जैसे ही राजा ने कलि को यह आदेश दिया वह उनके सिर पर लगे सोने के मुकुट पर बैठ गया। इस प्रकार वह धीरे धीरे राजा की बुद्धि को दिग्भ्रमित करने लगा।
एक दिन राजा परीक्षित आखेट पर निकले तो वे जंगल में भटक गए। प्यास और सेना से बिछड़े हुए राजा भटकते भटकते सामिक ऋषि के आश्रम में पहुँचें जहाँ ऋषि ध्यान में लीन थे। राजा ने उन्हें पुकारा पर घोर तप में लीन ऋषि ने कोई जवाब नहीं दिया।
राजा के दिमाग में एक बात गूंजी, जो कलि उनके मुकुट से बोल रहा था, “आप यहाँ के राजा हैं और इसकी ये मजाल…” राजा ने अपना सिर झटका की मुझे एक ऋषि के बारे में ऐसा नहीं सोचना चाहिए।
पर कलि ने बार बार यही दोहराया। राजा के मस्तिष्क में यह अहम बैतः गया कि वह राजा है। उसने पास पड़ा मृत सर्प उठाया और ऋषि सामिक के गले में डाल दिया। चूँकि ऋषि ध्यान में थे, उन्हें इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ा।

परन्तु शाम को जब उनके पुत्र ऋषि सृंगन आश्रम लौटे तो उन्हें पिता का यह अपमान बहुत बुरा लगा। उन्होंने सर्प को गले से निकाल कर फेका और ध्यान से पता किया कि ऐसा किसने किया।
जब उन्हें पता लगा कि यह राजा का काम है तो उन्होंने कहा, “हमें ऐसे मूर्ख राजा की आवश्यकता नहीं। आज से सातवें दिन इसी सर्प के डसने से इस राजा की मृत्यु हो जाएगी, ऐसा मेरा श्राप है।”
राजा परीक्षित को यह ज्ञात हो गया कि आज के सातवें दिन मेरी मृत्यु ही जाएगी तो उन्होंने अपना राजपाट अपने पुत्र जनमेजय को सौंप दिया। और स्वयं सुक जी महाराज के मुखारविंद से श्रीमद्भागवत महापुराण का श्रवण करने लगे।
इससे हुआ यह कि उनके हृदय से जन्म मृत्यु का भय समाप्त हो गया। सातवें दिन श्राप के अनुसार, तक्षक नाग जो सर्पों का राजा होता है, ने माला के अंदर छिपकर परीक्षित के प्राण हर लिए।
जन्मेजय को तक्षक पर बड़ा क्रोध आया। उन्होंने ऋषि अगस्त्य की मदद से सर्प यज्ञ कराया। इस यज्ञ में सांप उड़ उड़ कर आते थे और यज्ञ में आहूत हो जाते थे।
इसी यज्ञ के दौरान वैसम्पायन जी महाराज के द्वारा पहली बार महाभारत की कथा का वाचन हुआ जो जनमेजय ने सुना।
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