Shavyatra Me Piche Mudkar Kyo Nahi Dekhte || शवयात्रा देखने वाले सावधान || Shavyatra Ke Niyam
Shavyatra Me Piche Mudkar Kyo Nahi Dekhte || शवयात्रा देखने वाले सावधान
अर्थी को कंधा देने, शवयात्रा में सम्मिलित होने के नियम || रास्ते में खड़े होकर शवयात्रा देखने वाले सावधान|| Shavyatra Me Piche Mudkar Kyo Nahi Dekhte || शवयात्रा देखने वाले सावधान

दोस्तों आपने देखा होगा हिंदू धर्म में यदि कोई मरता है तो उसका अंतिम संस्कार उसी ढंग से किया जाता है जैसा आज से हजारों वर्ष पूर्व किया जाता था। आज भी लोग उसी ढंग से शव यात्रा में सम्मिलित होते हैं, अर्थी को कंधा देते हैं।
महिलाओं को छोड़कर केवल पुरुष ही श्मशान घाट जाते हैं, चिता जलाते हैं और फिर सूतक का पालन भी करते हैं। इसके अलावा और भी बहुत कुछ वैसे इसी क्रम में आज हम आपको शास्त्रों तथा पुराणों से ली गई जानकारियों के आधार पर इन्हीं सब प्रश्नों के उत्तर देंगे।
साथ ही साथ आपको यह भी बताएंगे कि यदि आप किसी की शव यात्रा में सम्मिलित होते हैं या रास्ते में कोई शव यात्रा देखते हैं तो आप को बड़ी ही सजगता से किन किन नियमों का पालन करना चाहिए।
अन्यथा आप पुण्य कमाने के बजाय पाप के भागीदार हो जाएंगे। तो आइए एक बार विस्तार से प्रकाश डालते हैं अंतिम यात्रा के कुछ प्रमुख नियमों पर।
दोस्तों जैसा कि आप सभी जानते ही हैं कि यदि घर परिवार या कुटुंब में किसी की मृत्यु हो जाती है तब शव यात्रा में सम्मिलित होना पड़ता है।
किंतु शास्त्रों में यह भी बताया गया है कि हमें उस की शव यात्रा में भी जाना पड़ता है जो हमारे घर के करीब 2 गज के आसपास के क्षेत्रों में रहता हो अर्थात हमारे पड़ोसी।
इतना ही नहीं अपितु गांव में तो आज भी लोग आस पड़ोस में किसी की मृत्यु हो जाने की दशा में तब तक चूल्हा नहीं जलाते और ना ही किसी प्रकार का कोई शुभ कार्य अथवा पूजा पाठ करते हैं जब तक कि उसकी अर्थी ना उठे।
वैसे इसके पीछे मान्यता यह है कि जिस स्थान पर शव पड़ा रहता है उसके आसपास का क्षेत्र भी नकारात्मक ऊर्जा से भर जाता है। आसान शब्दों में इसे सूतक कहा जाता है।
यह ठीक वैसी ही नकारात्मक उर्जा है जैसी सूर्य ग्रहण काल के दौरान होती है। इसीलिए लोग जल्दी से जल्दी अंतिम यात्रा की तैयारी करते हैं।
दोस्तों बहुत से लोगों के मन में यह विचार भी रहता है कि शव यात्रा में महिलाएं क्यों नहीं जाती? दरअसल शास्त्रों में इसके पीछे कई मान्यताएं प्रचलित है।
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उन्हीं में से एक यह है कि महिलाओं की प्रकृति जन्म देने की होती है जबकि शमशान की भूमि इसके ठीक विपरीत होता है। ऐसे में इस बात की संभावना बहुत अधिक रहती है कि सबसे महिलाओं की प्रजनन क्षमता या उनकी मातृशक्ति का ह्रास होने लगता है।
साथ ही यह भी माना जाता है कि महिलाएं अपने कोमल स्वभाव के कारण बड़ी ही आसानी से श्मशान में मौजूद विभिन्न प्रकार की नकारात्मक शक्तियों का शिकार हो जाती है।
अतः दुष्परिणामों के कारण महिलाओं को शव यात्रा में सम्मिलित नहीं किया जाता है। चार लोग अर्थी को कंधा देते हैं। वैसे कंधा देना एक अत्यंत ही पुण्य माना जाता है किंतु इसके पीछे भी कुछ नियम हुआ करते थे।
और पहले के लोग पूरी तन्मयता के साथ उन्हें निभाते भी थे। जिनमें यह नियम प्रमुख था कि जिस व्यक्ति का निधन हुआ है उसकी अर्थी को कंधा देने का अधिकार भी उसी वर्ग के लोगों का होता था।
जैसे ब्राह्मण की अर्थी को केवल ब्राह्मण, क्षत्रिय को केवल क्षत्रिय, वैश्य को वैश्य और शूद्र शूद्र। इतना ही नहीं अपितु ब्रह्मचारी व्यक्ति ना तो अपने मन के किसी व्यक्ति की अर्थी उठा सकता था और ना ही किसी अन्य वर्ण की।
किंतु हां वह अपने माता-पिता या गुरु की अर्थी को कंधा अवश्य ही दे सकता था। वैसे दोस्तों आपको तो पता ही है हिंदू धर्म में मनुष्य के जन्म से लेकर उसकी मृत्यु तक 16 संस्कार किए जाते हैं इन्हीं संस्कारों में 16 संस्कार अंतिम संस्कार कहलाता है।
तथा विवाह संस्कार को विवाह अग्नि संस्कार के नाम से जाना जाता है इसमें प्रयुक्त की गई अग्नि को विवाह अग्नि कहते हैं इसे विवाह में याद किए जाते हैं।
तत्पश्चात दंपति इस पवित्र अग्नि को अपने घर में स्थापित कर देता है और आजीवन इसी से अपने कुल परंपरा के अनुसार सुबह शाम हवन इत्यादि करते हैं।
तत्पश्चात परिवार में किसी की मृत्यु की दशा में किसी अग्नि को जलाकर शव यात्रा के आगे आगे ले जाया जाता है कि इसी से प्राणी का राम नाम सत्य है का जयकारा करते हुए शमशान भूमि की ओर बढ़ते हैं।
जबकि वहीं दूसरी ओर रास्ते में मिलने वाले लोगों को प्रणाम कर मन ही मन शिव शिव का जप करते हुए मरने वाले की आत्मा शांति के लिए परमात्मा से प्रार्थना करते हैं।
दरअसल इस सबके पीछे शास्त्रोक्त मान्यता यह है जिस मृत आत्मा ने अभी प्राण त्यागे हैं वह इस संसार को छोड़कर सीधे प्रभु के धाम जा रही है।
अतः वह प्रणाम करने वाले सभी मनुष्यों के कष्टों तथा दुखों को अपने साथ ले जाता है। वैसे इस संदर्भ में ज्योतिष शास्त्र का मत है कि यदि कोई व्यक्ति शव यात्रा को देखकर ठहर जाता है और उसे प्रणाम करता है तो इससे उसके सभी रुके हुए कार्य पूर्ण होने की संभावना बढ़ जाती है।
और उसकी समस्त प्रकार की मनोकामनाएं पूर्ण होती है। और इस प्रकार से अर्थी मुक्तिधाम तक पहुंचती है। वैसे आपको बता दें कि मुक्तिधाम का क्षेत्र यमराज के अधीन आता है और वे इसकी देखरेख के लिए अदृश्य रूप से क्षेत्र के देव नियुक्त करते हैं।
ऐसे में यह बहुत ही जरूरी है कि मुक्तिधाम में प्रवेश करने वाले प्रत्येक व्यक्ति को किसी भी प्रकार की अनुचित वार्तालाप अथवा हंसी मजाक से बचना चाहिए।
साथ ही उसे मन में यह भाव भी रखना चाहिए कि मरने के बाद उसे भी यहीं पर लाया जाएगा। अतः ऐसे में यदि वह किसी प्रकार की कोई अनुचित गतिविधि करता है तो फिर समय आने पर उसे क्षेत्र की देवों को जवाब देना भारी पड़ जाएगा।
उधर घर परिवार के लोग मिलकर विधिवत ढंग से संस्कार के लिए चिता सजाते हैं। वैसे हिंदू धर्म में नन्हे शिशुओं तथा पहुंचे हुए संत सर्पदंश से मृत प्राणी के को छोड़कर सभी के शव को जलाया जाता है।
दरअसल यह परंपरा हजारों सालों से यूं ही चली आ रही है क्योंकि हमारे प्राचीन ऋषि-मुनियों ने शरीर और आत्मा के विज्ञान को प्राचीन काल में ही खोज लिया था। उनका मानना था कि यह शरीर नश्वर है और यह इस पृथ्वी पर उपस्थित पांच तत्वों से मिलकर बना है।
जबकि आत्मा अमर है क्योंकि उसका जन्म सीधे परमात्मा से हुआ है। अतः इस शरीर को पंचतत्व अर्थात धरती अग्नि आकाश जल और वायु में विलीन कर दिया जाना चाहिए ताकि प्राणी का उसके शरीर के प्रति मोहभंग हो जाए। और उसे सीधे मोक्ष की प्राप्ति हो सके।
और आप तो जानते ही हैं कि संत सन्यासियों तथा नवजात शिशुओं को अपने शरीर के प्रति कोई मोह नहीं रहता इसीलिए उन्हें जमीन में गाड़ा जाता है।
और उसे मृत व्यक्ति के संदर्भ में यह मान्यताएं प्रचलित थी कि उसके शव को पेड़ पर रखकर नदी में प्रवाहित कर दिया जाता था। वैसे दोस्तों आखिरी संस्कार कभी भी रात में नहीं किया जाता है।
दरअसल इसके पीछे मान्यता यह है कि यदि किसी का रात में अंतिम संस्कार कर दिया जाए तो उसके शरीर को अत्यंत ही कष्ट भोगने पड़ते हैं। और फिर अगले जन्म में वह नेत्रहीन पैदा होता है।
उधर बड़ा पुत्र मुखाग्नि देता है और थोड़ी देर के बाद कपाल क्रिया कर दी जाती है ताकि आत्मा को मोक्ष की प्राप्ति हो सके। तत्पश्चात जितने भी लोग शव यात्रा में सम्मिलित हुए थे वे सभी व्यक्ति को अंतिम प्रणाम कर तीन लकड़ी दाएं हाथ में तथा दो लकड़ी बाए हाथ में रख कर शव की ओर पीठ करके अपने सिर से पीछे चौकी और फेंक देते हैं।
सब के बाद पीछे देखे बिना ही किसी नदी या तालाब में जाकर वस्त्र सहित स्नान करते हुए मृत प्राणी के नाम तथा गोत्र के आगे प्रेत बोलकर अंजुली से जल देकर बिना कुछ कहे पुनः घर की ओर चल देते हैं।
Shavyatra Me Piche Mudkar Kyo Nahi Dekhte? दरअसल यहां पर पीछे मुड़कर ना देख तथा बिना चलो कहे घर की ओर चल देने के पीछे मान्यता यह है कि मरने वाला प्राणी जब तक जीवित था तब तक वह आपका सगा संबंधी मित्र या रिश्तेदार था।
किंतु अब क्योंकि वह प्रेत योनि में जा चुका है। इसीलिए उसका और आपका अब कोई संबंध नहीं रहा। अब ऐसे में यदि कोई व्यक्ति उसे ज्यादा याद करता है प्राणी प्रेत रूप धरकर उस व्यक्ति के साथ हो जाता है।
इसे साधारण शब्दों में प्रेत बाधा कहते हैं। तत्पश्चात घर लौटने के बाद शव यात्रा में सम्मिलित लोगों को दांतों से मिर्ची या नीम चढ़ा कर फेंकना तथा लोहा अग्नि जल वह पत्थर को स्पर्श करके ही घर में प्रवेश करना चाहिए।
वैसे आपको बता दें कि इसके पीछे की धारणा यह है कि अध्यात्म जगत में किसी भी मनुष्य के इस भौतिक शरीर के अलावा भी ऊर्जा से बने कई अन्य शरीर माने गए हैं जो श्मशान घाट यह शव के संपर्क में आने से दूषित हो जाते हैं।
अतः जब आप इन वस्तुओं का स्पर्श करते हैं तो इससे उन शरीरों की अशुद्धियां भी दूर हो जाती है। इतना ही नहीं अपितु जो लोग शव यात्रा में सम्मिलित होते हैं उन्हें 1 दिन का, चौक को छूने वालों को 3 दिनों का तथा अर्थी को कंधा देने वालों को लगभग 8 दिनों का सूतक मानना चाहिए।
आप तो जानते ही हैं सूतक काल में पूजा पाठ मंदिर तथा धार्मिक आयोजनों में सम्मिलित होने साधुओं को दान देने दान पेटी या गुल्लक आदि में रुपया पैसा डालने की मनाही होती है।
इसी के साथ हमारी यह जानकारी भी यहीं समाप्त हुई आशा करते हैं आपको यह जरूर अच्छी लगी होगी। इस जानकारी को ज्यादा से ज्यादा लोगों के साथ शेयर करें और आपसे आप हमें फेसबुक पर फॉलो करना ना भूलें। आप सभी दोस्तों का बहुत-बहुत धन्यवाद!